दो पल सुलगा कर , धुआँ उड़ा कर ,
बोलो तुमने क्या पाया
ये जीवन स्वर्ग सरीखा था
बर्बाद किया कुछ न पाया
तुमने सोचा भोकाल बना ,
तुम जग भर को भरमाओगे
ये ही पुरुषत्व जतायेगा,
इससे सम्मान कमाओगे
पर व्यथित हृदय माँ का रोया,
जब तुमने क्षय, क्षय कर पाया
ये जीवन स्वर्ग सरीखा था
बर्बाद किया कुछ न पाया
दो पल सुलगा कर , धुआँ उड़ा कर ,
बोलो तुमने क्या पाया।
पहला कश था मित्रता हेतु,
दूसरा तेरी लालसा बना
तीसरा तेरी आदत बन कर
तेरे जीवन का त्रास बना
तुमने ये अद्भुद जीवन
विष की भेंट चढ़ा कर क्या पाया
ये जीवन स्वर्ग सरीखा था
बर्बाद किया कुछ न पाया
दो पल सुलगा कर , धुआँ उड़ा कर ,
बोलो तुमने क्या पाया।
प्रेयसी तुम्हें समझे युग का
बस इसी आस में पिये रहे
जग को बहलाने की खातिर
तुम स्वयं नशे में जिये रहे
पर जीवन है अनमोल नशा
इसको उलझा कर क्या पाया
ये जीवन स्वर्ग सरीखा था
बर्बाद किया कुछ न पाया
दो पल सुलगा कर , धुआँ उड़ा कर ,
बोलो तुमने क्या पाया।
स्वधा रवींद्र "उत्कर्षिता"

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