मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

मेरे प्यारे से भैया के लिए

 मुझे नहीं पता

लोग तुम्हें कैसे देखते हैं
शायद लोगों ने देखें होंगे 
तुम्हारे घने बाल
पर मैने देखी है उसमें छिटकी चांदनी
और 
उस सफेदी के पीछे के तुम्हारे अनुभव
हाँ 
ये तुम्हें देख के सच प्रतीत होता है
कि तुमने धूप में 
नहीं सफेद किये हैं अपने बाल
रेज़ा रेज़ा गले हो तुम 
तब आई है ये सफेदी।

मैने नहीं देखी हैं तुम्हारी पलकें
और तुम्हारी आँखों की बनावट
पर हाँ
जब पहली बार तुम्हारी फ़ोटो देखी थी
तो सबसे पहले
ज़ूम करके देखी थी तुम्हारी आँखें
क्योंकि मेरी समझ से 
किसी का सच पढ़ना हो 
तो उसकी आँखें पढ़ना ज़रूरी है
और उस दिन देखी थी 
मैने तुम्हारी आँखों की गहराई
जिसे दूर से देख 
उसका अंदाजा लगाना
नामुमकिन सा था।

फिर पढ़े थे तुम्हारे अधर 
जो बोलते तो थे
पर उनके कोनों पर कहीं 
कुर्सी डाल के बैठा था मौन
अपने अंदर शब्दों के झंझावात समेटे।
शायद वो टूटता
तो जाने कितने लोग बेनकाब हो जाते।

तुम्हारे हलक में फंसे थे 
कुछ शब्द भेदी बाण
जिन्हें तुम्हारे कानों ने 
तुम्हें यह कह कर दिया था
ले लो ये तुम्हारे अपनों के भेजे उपहार
तुम उन्हें निगल गए
और
समेट लिए थे तुमने वो शब्दभेदी बाण
कभी न उगलने के लिए
और रोक लिया था उन्हें अपने हलक में
ताकि वो अंदर जा 
तुम्हारे हृदय को न भेद सकें।
और इस तरह तुम बन गए थे
मेरे लिए नीलकंठ का पर्याय।

तब शायद बहा था 
गंगाजल तुम्हारे दृगों से
पर बाहर की ओर नहीं,
अंदर की ओर
और तुम्हारे अंदर की एक एक कोशिका
में प्रवाहित हो गया था वो 
बन कर सिद्धांतों का अमृत।
दिखते हैं वो सिद्धांत तुम्हारे अंदर
फलते फूलते
जो आज के समाज में लोगों के अंदर
रोज़ दम तोड़ते हैं।

जानती हूँ मैं,
बहुत कुछ छोड़ आये हो तुम पीछे
और बहुत कुछ छोड़ देते हो
बस इसलिए क्योंकि उस रस्ते जाना
तुम्हारे सिद्धांत गंवारा नहीं करते।
जानते हो तुम 
जब जब तुमसे बात करती हूँ
ध्यान में बैठ
जहाँ बस मैं तुम और शिव होते हैं
मुझे तुम्हारे अंदर एक
छोटा सा बच्चा दिखाई देता है
जो आज की दुनियादारी से कोसों दूर है
लड़ जाता है लोगों से 
सच के लिए
बिना इस बात की परवाह किये 
कि ये सत्य की लड़ाई
नुकसान का कारण बन सकती है
तन कर खड़ा हो जाता है
सिंह जैसी विपत्तियों के सामने
क्योंकि उसे मनुष्य से अधिक 
खतरनाक जानवर 
शेर भी नहीं लगता।

तुम विपरीत धार में 
नौका चलाने वाले 
नाविक से लगते हो मुझे।
और अक्सर देखती हूँ तुम्हें बन्द आंखों से
आंधियों के सामने खड़े हो
उन्हें ललकारते और कहते
है सामर्थ्य तो डालो मेरी आँखों मे आँखें।
तुम खुद को ही नहीं 
जाने कितनों को टूटने से बचाते हो
और मेरे लिए तो 
अक्सर ही छाया वाले
दरख़्त बन जाते हो
एक ऐसी छाया
जहाँ मैं खुद को अनाथ नहीं पाती
जहाँ तुम मेरे अग्रज बन 
मेरा हाथ थाम 
मुझसे कहते हो
मत डर छुटकी, मैं हूँ न साथ तेरे ।

अब तुम मेरे जीवन में 
बिल्कुल वैसे ही हो
जैसे धरती के लिए है अंशुमान
जो हर बार हरता है तम
करता है प्रकाशमान।
जितना तुम्हें देखा तुम्हें जाना
तुम संस्कारो सिद्धांतों और 
एक नवीन सोच के प्रतिनिधि हो
सच कहती हूँ भैया
तुम मेरे जीवन की 
सबसे अमूल्य निधि हो
सबसे अमूल्य निधि हो।


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