यह भारत के एक पुत्र भारत की कहानी है, जो अपने पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति के लिए निकल पड़ा है....
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ऐसा लगता है जैसे पानी मे जाकर क्षीर मिला है
आज वोल्गा के जल में फिर से गंगा का नीर मिला है।
भारत खड़ा वोल्गा तट पर अपने मन को खोल रहा है
अधर हुए हैं मौन किंतु आंखों से अपनी बोल रहा है
बोल रहा है मन की बातें जो वो माँ से कह लेता था
बाबा थे जब साथ, बड़ी हिम्मत से सबकुछ सह लेता था
आकुल चिंतित भारत का मन फिर से आज अधीर मिला है
आज वोल्गा के जल में फिर से गंगा का नीर मिला है।
माई वहाँ विकल है तो वो भी विदेश में ना सोता है
बड़ा हो गया तन से लेकिन , एकाकीपन में रोता है
बाबा वाले ऋण की किश्तें दूर देश तक ले आई है
उसे ब्याहनी हैं दो बहनें, चिंता यह मन में छाई है
विषमताओं की धारों में भी, भारत सदा सुधीर मिला है
आज वोल्गा के जल में फिर से गंगा का नीर मिला है।
फ्लैट बड़ा है सुख सुविधाएं भी सारी उसके अंदर हैं
लेकिन आँगन नहीं कहीं भी, दिखता नहीं उसे अम्बर है
ए सी वाली हवा उसे, जानें क्यों ताने मार रही है
ठंडी है पुरवाई से वो ,फिर भी देखो हार रही है
उसको तो यादों में उसकी बहता हुआ समीर मिला है
आज वोल्गा के जल में फिर से गंगा का नीर मिला है।
रोटी की तलाश भारत को ,भारत माँ से दूर ले गयी
कोने कटी हुई वो चिट्ठी , चेहरे का सब नूर ले गयी
बाबा की चिंताओं ने फिर मन की सांकल खड़काई थी
अम्मा की अस्वस्थ निगाहें , भय का कारण बन आई थी
अनसुलझे प्रश्नों का जमघट, व्याकुल मन के तीर मिला है
आज वोल्गा के जल में फिर से गंगा का नीर मिला है।
जब भी हुआ निराश ढूँढता अपनों को मेरे तट आया
शायद मेरे जल में उसने अपनी माँ गंगा को पाया
अपने हित पूरे करने को लोग वोल्गा तक आते है
और यहाँ के हुए अगर तो सिर्फ यहीं के हो जाते हैं
लेकिन भारत के बेटों में मुझको सदा फ़कीर मिला है
आज वोल्गा के जल में फिर से गंगा का नीर मिला है।
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स्वधा रवींद्र 'उत्कर्षिता'
वाह वाह वाह वाह
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