लड़ रहीं उल्काएं
पुच्छल टूटता चहुँ ओर
रो रही आकाश गंगा
सृष्टि करती शोर ।
पूछती नदियाँ बताओ
क्या हुई है भूल
क्यों चुभोते हो हमें तुम
कीच वाले शूल
क्यों सभी अपशिष्ट अपने
तुम मिलाते हो
क्यों भला शैवलिनी में
शव बहाते हो
कह रही व्याकुल निमग्ना
है यही हर ओर
पाप करके पाप धुलने
आ रहे फिर चोर
लड़ रहीं उल्काएं
....................
सृष्टि करती शोर।
बादलों में भी धुएं के
अंश भारी है
लग रहा है रात की
दिन में तैयारी है
धुन्ध है आकाश पर
उद्विग्न मलयानिल
ले अवांक्षित बह रही
विमनस्क , खिन्न, अनिल
पूछती आकाश से
यह क्या हुआ हर ओर
सूर्य है आकाश पर
फिर क्यों न आई भोर?
लड़ रहीं उल्काएं
....................
सृष्टि करती शोर।
भीड़ है कोलाहलों की
अब किधर जाएं
कौन से कोने में जा कर
शांति सुख पाएं
कान कर लें बंद या
या फिर बोलना रोकें
जो गलत करने लगे
कैसे उन्हें टोकें
पूछती स्वर ग्रंथिंयाँ
कैसे मिटायें शोर
हम प्रकृति के पुत्र
बैठे दुःख लिए घनघोर
लड़ रहीं उल्काएं
....................
सृष्टि करती शोर।
यदि नहीं हमने बचाया
उर्वरा फिर खुद करेगी
किंतु तब हर पाप का
परिणाम मानवता भरेगी
फिर प्रलय के अंश होंगे
आँख के सम्मुख हमारे
मृत्यु फिर तांडव करेगी
जाएंगे कितने ही मारे
फिर नहीं चल पाएगा
अपना प्रकृति पर ज़ोर
काल के तम में घिरेंगे
खत्म जीवन डोर
लड़ रहीं उल्काएं
....................
सृष्टि करती शोर।

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