फटी चुनरिया, उधड़े कपड़े, बिखरे बिखरे बाल
घूम रही थी एक पगलिया, दे ढपली पर ताल।
एक सड़क से सड़क दूसरी पैदल नाप रही थी
चौराहों पर बेपरवाही से वो भाग रही थी
नंगे पैर भटकती लेकर छाले और बिवाई
भूख प्यास से तड़प रही थी , दो बच्चों की माई
रोटी की लालच दे कर जग चलता कैसी चाल
मुस्काता है मान प्रतिष्ठा पर कुदृष्टि वह डाल
फटी चुनरिया................दे ढपली पर ताल।
नहीं जानती पता ठिकाना , न मैका ससुराल
ना जाने किसकी बिटिया है, किसके पाले लाल
पर इतना है पता , क्षुधा से बच्चे बड़े विकल है
हृदय हुआ है व्याकुल, माँ की आँखे हुई तरल हैं
बच्चों की जठराग्नि मिटाने खुद को करे हलाल
कोई कोहनी मार रहा कोई सहराता गाल,
फटी चुनरिया................दे ढपली पर ताल।
मानव युग के मानव का मन काला कर डाला था
बदनियती का यह आलम है, लुटे हुए को लूटे
श्वेत वसन अब पहन घूमते, अंतर्मन से झूठे
बहलाने फुसलाने की वे कला जानते सारी
उनके आगे आ फंस जाती , हारी सी लाचारी
कोमल हिरण भला क्या समझे आखेटक की चाल
लालच दे जो बिछा रहा था उसे लूटने जाल
फटी चुनरिया................दे ढपली पर ताल।
चारुलोचनी को लुब्धक ने ऐसी राह दिखाई
अंतड़ियों की अग्नि बुझाने वो झांसे में आई
पता नहीं था उस पगली को लालच बुरी बला है
जो इसमें फंस गया, सदा ही फिर वो गया छला है
अंध गली में चीख चीख कर करती रही मलाल
अगली सुबह मिली रस्ते में उसकी हड्डी खाल
फटी चुनरिया................दे ढपली पर ताल।

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