मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

दोहे


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तुम तुम हो मैं मैं रहूं, ये थी कल की बात

प्रेम चांदनी में लिपट, एक हुए मन गात।


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सोच समझ सब ख़त्म हो, जब हो मिलन विधान

प्रकृति पुरुष के साथ से , ही होता कल्यान।


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सर पर मटकी प्रेम की, भर निकली ब्रज नार

गोकुल से फिर श्याम ने, खींच लिए सब भार।।


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जड़ता की चादर लिए, सोया रहा फ़कीर

जो मलंग था प्रेम में, वो बन गया कबीर।


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शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

आँगन का सूनापन



मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......

आँगन का सूनापन मन को नित ही छलता है
पनघट पर कान्हा के बिन तन मेरा जलता है
बिना कंत के ह्रदय रुग्ण करुणामय लगता है
सृष्टि बसा हर जीव मुझे आ आ कर ठगता है
लावे सा जलता है मन कोई दो हमें दुआ

मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......

निर्जन वन की हिरणी जैसी भटकी मैं दिन रात
नीरवता में दिन बीते और ठगिनी सी थी रात
अपनेपन का स्वप्न दिखाने जो अक्सर आता
हाथ पकड़ लेती उसका तो पल में उड़ जाता
दुर्भाग्यों के शूलों ने इस तरह मुझे छुआ

मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......

जग को छोड़ निकलना होगा अब तो प्रभु की ओर
तभी मिलेगा शायद उर को सुख का अनुपम छोर
जब रिक्तता सुखद होगी, लोगों की भीड़ नहीं
तब देखोगे हिय के कोने, राघव बसें कहीं
जीवन के मरुथल में खोदो जाओ ज्ञान कुआँ

मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......

चाहे राह कोई पकड़ो पर आँगन से छत तक
केवल रहे तुम्हारा मन प्रभु के चरणों में रत
स्वाँसे उसकी लय थामें, धड़कन उस चाल चले
जिन राहों पर सबके हित वाले हों पुष्प पले
हरि का नाम उच्चारण कर जीतोगे हर इक जुँआ

मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......

बिलरिया मूषक खावे आई

 बिलरिया मूषक खावे आई

मंद मंद मुसकाई
बिलरिया मूषक खावे आई।
भोला मूषक समझ न पावे
बन विलाब की चाल
दौड़ावे मूषक का लेकिन
पकड़े न वो खाल
आगे आगे भागे इंदुर
सोच रहा कित जाई
बिलरिया मूषक खावे आई।
इत उत घूमे समझ न पावे
कैसे और कहां बच जावे
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन
कितहूँ घूमे ठौर न पावे
देख कोठरी काल कराली
छुप के पैठ लगाई
बिलरिया मूषक खावे आई।
अंधियारे ने भय उपजाया
राम नाम मूषक ने गाया
तन मन भीति त्याग तब भागा
हृदय तार बलम संग लागा
भय भंजन की शरण पहुंच कर
मुसटा बिलरी खाई
बिलरिया मूषक खावे आई।
मगर न अंत मे वो बच पाई
बिलरिया मूषक पेट समाई
बिलरिया फिर न पलट कर आई
बिलरिया अंत बहुत पछताई।

 वो लिखेंगे समझ जो आ जाये

वो लिखेंगे जो जग को भा जाए
हम बनेंगे जो जन्म देता है,
वो नहीं जो किसी को खा जाए।

देखा है गया

नित नई ढपली नया इक ताल देखा है गया

शाश्वत चीज़ों के सर पर काल देखा है गया।

जिसको पूरी जिंदगी सबने कहा ईमानदार
उसके घर में दूसरों का माल देखा है गया।।
हँस रही थी खिलखिला कर जो कली उस बाग में
उस कली का हाल फिर बेहाल देखा है गया।।
बाँटता जो घूमता सर्टिफिकेट चारित्र्य के
एक रक्कासा के संग फिलहाल देखा है गया।।
ले गए थे वे अनाथालय से कह जिसको परी
उसको उसके घर में ही बदहाल देखा है गया।।
गा रहे हैं राम को कविताई में जो आज कल
संस्कारों से उन्हें कंगाल देखा है गया।।
मंच पर बैठी हैं जो कविताएँ पढ़ने के लिए
अपनी भाषा में उन्हें तंग हाल देखा है गया।।
जो स्वधा कल तक बताती थी बचें सब प्यार से
उसको शिव के प्रेम में खुशहाल देखा है गया।।