मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......
आँगन का सूनापन मन को नित ही छलता है पनघट पर कान्हा के बिन तन मेरा जलता है 
बिना कंत के ह्रदय रुग्ण करुणामय लगता है
सृष्टि बसा हर जीव मुझे आ आ कर ठगता है 
लावे सा जलता है मन कोई दो हमें दुआ
मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......
निर्जन वन की हिरणी जैसी भटकी मैं दिन रात
नीरवता में दिन बीते और ठगिनी सी थी रात
अपनेपन का स्वप्न दिखाने जो अक्सर आता
हाथ पकड़ लेती उसका तो पल में उड़ जाता
दुर्भाग्यों के शूलों ने इस तरह मुझे छुआ
मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......
जग को छोड़ निकलना होगा अब तो प्रभु की ओर
तभी मिलेगा शायद उर को सुख का अनुपम छोर
जब रिक्तता सुखद होगी, लोगों की भीड़ नहीं
तब देखोगे हिय के कोने, राघव बसें कहीं
जीवन के मरुथल में खोदो जाओ ज्ञान कुआँ
मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......
चाहे राह कोई पकड़ो पर आँगन से छत तक
केवल रहे तुम्हारा मन प्रभु के चरणों में रत
स्वाँसे उसकी लय थामें, धड़कन उस चाल चले
जिन राहों पर सबके हित वाले हों पुष्प पले
हरि का नाम उच्चारण कर जीतोगे हर इक जुँआ
मन की चिमनी से उठता है क्यों कर आज धुँआ
शायद सुलग रहा है मन के भीतर छुपा सुआ......