सूर्य ने साँकल बजाई
पक्षियों ने नीड त्यागे
फिर कोई सन्यास ले
गृह त्याग कर के चल पड़ा है
बुध्द जैसा ये मना है।
रंग केसरिया हुआ है
नभ नवल परिवेश में है
है प्रकृति भी गुनगुनाती
एक नए आवेश में है
एक नया संकल्प ले मन
आज गिरि जैसा तना है
बुध्द जैसा ये मना है।
पूछता है फिर हृदय ये
भक्ति कैसे पाऊँ तेरी
बस रहा हर ओर जब तू
क्यों तुझे पाने में देरी
बंद नयनों के पटल
मस्तिष्क पर अब तू बना है
बुध्द जैसा ये मना है।
टेरता रहता तुम्हारा नाम
नित जीवन सरीखा
जब हृदय विक्षिप्त सा था
बस तेरा ही मार्ग दीखा
इस तिमिर क्षण में तुम्हारा
साथ ही संबल बना है
बुध्द जैसा ये मना है।

सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंलाजवाब करती कविता 👍
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर।
जवाब देंहटाएं