गीत
ढाँपने को दो नयन दो हाथ उन पर रख दिये थे
पर नहीं मालूम था ये
हाथ अपनी गर्मियों से बस नयन को सेंकते हैं
नैन सबकुछ पार करके देखते हैं।
कल खरीदी थी पिता ने लाल साड़ी
सोलहों श्रंगार भी लाकर दिए थे
और चूनर पर सितारों जुगनुओं के
स्वप्न हीरे मोतियों से भी सीए थे
लाल चूड़ी , लाल सेंदुर ,
लाल बिंदिया, लाल तेवर
मांग टीका नाक की नथ
कान कुंडल और ज़ेवर
सब सजा कर थाल में ,बेटी करी थी दान
था अभिमान
क्यों कर आज वो उस हॉस्पिटल के
एक बर्निंग वार्ड के बाहर खड़ा था
पा खबर बेटी जली है आप से ही वो लड़ा था
आज बेटी के नयन के अश्रु का खारा नमक
जब घाव उसके हैं जलाते
तब पिता उसके नयन की रिक्तता में
खोए सपनों की कसक को देखते हैं
नैन सबकुछ पार करके देखते हैं।
जल रही थीं जब चिताएं ,
बिना लकड़ी और कफन के
थी सड़क शमशान उनका,
कुछ पड़े थे बिन दफन के
तब बहुत था ढूंढना मुश्किल कि इसमें
कौन हिन्दू कौन मुसलमां
भीड़ केवल भीड़ होती है
न इसका है मुजस्समा
तब पड़ी लाशों में माँ के हाथ
जब जब काँपते हाथों से बच्चे ढूंढते है
नैन विह्वल हो भरे खारी सी गंगा
प्राण से खाली शरीरों में
उसी माँ के कुंवर के
प्राण मिल जाये कहीं शायद पड़े ये देखते हैं
नैन सबकुछ पार करके देखते हैं।
मंदिरों में घंटियों के स्वर बजे जब
और मस्ज़िद में अज़ानों से सुबह हो
राजनीति के अखाड़ों में बहस के
बम गिरे जब और संसद में जिरह हो
हो रहे घंटा घरों पर जब प्रदर्शन
और जब बागों में कलियाँ मर रही हों
देश के बेटे जो बेटे जन्म से थे
उनको उनकी मायें खोकर मर रही हों
मांगते हों लोग इसका साक्ष्य
की किसने लगाई आग
जनता हो रही हो क्षुब्ध
हर कोई रहा हो भाग
और स्कूली समूहों में जहाँ बरसों से था बस प्रेम
लोगों ने बदल दी डीपियाँ
बस तब दिखी थी प्रेम से भीगी सखी
के मन के अंदर की थी खाली सीपियाँ
निस्तब्ध मन में थी व्यथाएँ
वेदना से भर हुए थे नैन भी जब तर
तब नयन ये भाव के सब पार पर्वत करके
खुद की सत्यता को देखते हैं
नैन सबकुछ पार करके देखते हैं
ढाँपने को दो नयन दो हाथ उन पर रख दिये थे
पर नहीं मालूम था ये
हाथ अपनी गर्मियों से बस नयन को सेंकते हैं
नैन सबकुछ पार करके देखते हैं।
स्वधा रवींद्र "उत्कर्षिता"

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