रे माटी के पुतले, तू काहे गूंधे माटी, और काहे चाक चढ़ाए
देह पुरानी होती जाती
और एक दिन खो जाती है
पिंजरा खाली रह जाता है
और मैना उड़ जाती है
जान रहा मैं सत्य सृष्टि का
तू क्यों प्रश्न बिछाए
मैं माटी का पुतला ,माटी का मोल मैं जानूँ ,लूँ इससे दिए बनाये
रे माटी के पुतले, तू काहे गूंधे माटी, और काहे चाक चढ़ाए।
खाली कुम्भ बिना पानी के
बिल्कुल है बेमानी
कोरी चादर पहन निकल गयी
बन बिल्कुल दीवानी
बिना राम के बनी अहिल्या
जग भी मुझे सताए
मैं माटी का पुतला ,माटी का मोल मैं जानूँ ,लूँ इससे दिए बनाये
रे माटी के पुतले, तू काहे गूंधे माटी, और काहे चाक चढ़ाए।
टेर रही मैं नाम पिया का
जीवन चाक चलाऊँ
राम कभी और कृष्ण कभी
जोगन बन रटती जाऊँ
मिट्टी की ही काया सबकी
वो ही पार लगाए
मैं माटी का पुतला ,माटी का मोल मैं जानूँ ,लूँ इससे दिए बनाये
रे माटी के पुतले, तू काहे गूंधे माटी, और काहे चाक चढ़ाए।
झीनी हुई चदरिया मेरी
झीना हुआ मेरा मन
अँखियों से बिन मौसम बरसे
जाने कैसे ये घन
जब सब छूटा तब उसने ही
भव सागर तरवाये
मैं माटी का पुतला ,माटी का मोल मैं जानूँ ,लूँ इससे दिए बनाये
रे माटी के पुतले, तू काहे गूंधे माटी, और काहे चाक चढ़ाए।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी अनमोल प्रतिक्रियाएं