वो गोले के केंद्र खड़े हो परिधि नापते रहते हैं
मैं तिर्यक रेखा बन कर दो छोर मिलाया करती हूँ।
प्रेम नहीं संयोग चाहता वो वियोग में भी खुश है
योग भोगता निरत वियोगी उसको काहे का दुख है
वो नयनों से तीर चला, रत रहे प्रतीक्षा में निस दिन
मैं उंगली के पोरों से वो नाम मिटाया करती हूँ
वो गोले के केंद्र खड़े हो परिधि नापते रहते हैं
मैं तिर्यक रेखा बन कर दो छोर मिलाया करती हूँ।
वो क्या जानें जब जब उनको लिखती हूँ पाती कोई
बहती रहती हैं ये अँखियाँ जो बरसों से ना सोई
वो अनदेखा कर मुझको गैरों का साथ निभाते हैं
मैं उनके पदचिन्हों पर फिर कदम बढ़ाया करती हूँ।
वो गोले के केंद्र खड़े हो परिधि नापते रहते हैं
मैं तिर्यक रेखा बन कर दो छोर मिलाया करती हूँ।
राम नाम की माला लेकर वो सन्यासी बन भटके
जिनको कान्हा मान बिरज में हम उलझे और हम अटके
वो जग भर के पुरुषोत्तम बन सबके त्रास मिटाते है
मैं विष का प्याला पी कर फिर , उन्हें जिताया करती हूँ
वो गोले के केंद्र खड़े हो परिधि नापते रहते हैं
मैं तिर्यक रेखा बन कर दो छोर मिलाया करती हूँ।

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