मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

शनिवार, 2 मई 2020

गीत:- वो मजदूरन




वो मजदूरन मजदूरी में ईंटे ढोती है
भरी धूप में चलते फिरते सपने बोती है।

कच्चे चूल्हे पर , पक्की रोटी तैयार करे
खुद का पेट रखे खाली, खाने में प्यार भरे
कमी अगर हो खाने की चावल को नीर डुबोये
अँखिया खोले वो अपने अपने जीवन मे सोने बोए
अगले पल के भोजन की चिंता में रोती है।

वो मजदूरन मजदूरी में ईंटे ढोती है
भरी धूप में चलते फिरते सपने बोती है।

झीनी ओढ़ चदरिया जग की नीयत तोलती है
लेके एक तिपहिया पूरा शहर डोलती है
नंगे पैरों में लेकर वो फटी बिवाई फिर
अद्धा और सगरा ईंटा रख अपने सर पर फिर
अपने राधे के पीछे वो रधिया होती है

वो मजदूरन मजदूरी में ईंटे ढोती है
भरी धूप में चलते फिरते सपने बोती है।

ठेल रही है अपना जीवन जैसे ठेले गाड़ी
अक्सर पैरों में चुभती है काँटो वाली झाड़ी
एक सिरे पे बुधिया खींचे एक सिरा वो ठेले
इस तरह से दोनों मिलकर जीवन के दुख झेलें
रिसते घावों पर हँस कर मरहम होती है

वो मजदूरन मजदूरी में ईंटे ढोती है
भरी धूप में चलते फिरते सपने बोती है।

मौरंगों पर बिछा ओढ़नी मुन्ना रही सुलाये
कभी बांध पेड़ों पर साड़ी झूला उन्हें झुलाये
तपती धरती पर आँचल से साया देती है
और कभी खुद बन कर छतरी छाया देती है
और सुरक्षा की ख़ातिर वो कभी न सोती है

वो मजदूरन मजदूरी में ईंटे ढोती है
भरी धूप में चलते फिरते सपने बोती है।






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