मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

शुक्रवार, 8 मई 2020

कलम बोलती है

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लोग लिख रहे थे
रचनाओं पर रचनाएं
कथाओं पर कथाएं
उनमें से कुछ
लिख रहे थे
दुखी मन की
व्यथाएं
अनवरत जन्म रहा था
साहित्य
पर खत्म था 
साहित्य का लालित्य
क्योंकि 
शब्द उठा कर 
कागज पर रख देने से, 
किसी की किसी से 
तुलना मात्र कर देने से,
या छंदों और रसों को
कूट कूट भर देने से,
नहीं बनता है पद्य।

कुछ 
अल्प विराम
अर्ध विराम
उपविराम
पूर्ण विराम 
प्रश्न वाचक
और विस्मयादिबोधक
चिन्हों से
कुछ पंक्तियों 
और कुछ पंक्तियों की ग्रंथियों से 
नहीं बनता है गद्य।

लिखने के लिए
जीना पड़ता है
पैरों की उन फटी बिवाइयों
की पीर को
अम्मा की फटी हुई धोती 
की चीर को
गर्मी में झुलसती मजदूर की देह को
एक अनाथ के तरसे हुए नेह को
लिखने के लिए 
बनना पड़ता है सुकरात
खाने पड़ते हैं आघात।

और कभी कभी 
रोक के हलाहल 
गले की बीचों बीच
लेनी पड़ती है 
एक बड़ी स्वांस खींच
और निगल लेने होते हैं 
जाने कितने अवसाद
वाद और प्रतिवाद

भरना पड़ता है 
कलम में
स्याही की जगह
खून
और लिखते समय
बहाना पड़ता है
आँसुओं का हुज़ूम।

और इससे भी 
खतनाक होता है
सब कुछ बटोर कर 
छिपा लेना 
दिल के किसी कोने में
और सोच लेना 
कि क्या रखा है रोने में
इससे अधिक लाभ है
एक सुषुप्त ज्वालामुखी होने में ।

लावा जब अंदर उबलता है ना
तो कलम बोलती नहीं चीखती है
जाने क्या क्या उलीचती है
कुछ बेरंग सपने
कुछ छूटे हुए अपने
कुछ अनकहे प्रस्ताव
जिन्होंने दिए थे हृदयों को घाव
कुछ आकर्षण कुछ प्रतिकर्षण
कुछ संवेदनाएं 
और उनके होने के कारण 
जन्मी असंख्य वेदनाएं
कुछ मलबे और 
उन मलबों के पीछे 
लगाई गई घातें
और मलबों के अंदर से निकली
कुछ मासूम बच्चों की 
अधजली लाशें।
कुछ सरकारी दस्तावेज़
जिसे नीचे से जाते 
देख रही थी मेज़,
कुछ अनियोजित और स्वार्थपरक
परियोजनाएं
जिसके कारण गिरे थे पुल
दब गए थे कितने पिता, भाई , बहन और माताएं
वो जो कल बन्नो जली थी ना
और 
चैराहे पर खून से सनी 
उस कम्मो की लाश पड़ी थी ना
उसका भी राज़ खोलती है
जब 
लावे और खून से भर कर 
कलम बोलती है। 
जब 
लावे और खून से भर कर 
कलम बोलती है। 
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