मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

भारत का किसान


 

सर पर घनी धूप पाँवों में मिटटी का जेवर धारे

जेठ दोपहरी , लू के थपेड़े जिसको रोज़ रोज़ मारे

स्वेद बिन्दुओं से भीगा तन मन वेदना संजोये है

भारत का किसान , खुद भूखा, बिन आँसू के रोये हैं |

 

बंजर में हरियाली लाते लाते, प्रस्तर बन जाता

बाँट रहा रोटी जो जग को , थाली भूख सजा लाता  

मांग रहा है भीख आज, जीवन सबको देने वाला

आंतों की मरोड़ को, अमृत अन्न दान देने वाला।

धरतीपुत्र, लिपट धरती से बीज धरा में बोये है

 

भारत का किसान , खुद भूखा, बिन आँसू के रोये हैं |

 

हुए बड़े दयनीय गांव जब शहरों ने पहने जेवर

रोते रहे किसान दिखाए व्यापारी ने जब तेवर

लटका पुनः पेड़ पर देखा, जग ने फिर एक मतवाला

अन्न नहीं था खुद खाने को , बाँट रहा था  हलवाला

उसके अपने बच्चे देखो बिन खाए ही सोये हैं

 

भारत का किसान , खुद भूखा, बिन आँसू के रोये हैं |

 

तन की काया झुलस गई है, मन रोया अकुलाया है

शासन के गलियारों को वो , आंसू से धो आया है

मांग रहा है हक वो अपना, कोई नहीं सुनने वाला

सत्ता के कानों में झूल रहा है एक बड़का ताला

चिल्ला कर थक गया  सपन सब उसके देखो खोये हैं

 

भारत का किसान , खुद भूखा, बिन आँसू के रोये हैं |

 

कितने ही पर्याय हैं उसके , क्या क्या है वो कहलाता

कभी बना भगवान् , कभी है विद्रोही वो कहलाता

जब तक हरे क्षुधा लोगों की , तब तक है सम्मान बड़ा

हक़ मांगे लेकिन अपना तो देश द्रोही है बन जाता  

अपने हाथों से बरसों से अपनी लाशें ढोयें हैं  

 

भारत का किसान , खुद भूखा, बिन आँसू के रोये हैं |

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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