मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

सोमवार, 16 मई 2022

माँ -एक रिश्ता ऐसा भी

 

माँ

एक रिश्ता ऐसा भी
__________________________________________________________________________________



तुमसे मेरा रिश्ता कैसा था ये तो मैं भी नहीं समझ सकी अब तक और सच कहूँ तो आज भी ये सोच कर कि मैं तुम्हारे इस लौकिक परिचय को जानने से पहले से तुम्हें जानती थी मैं स्वयं भी डर जाती हूँ।पर ये भय तुमसे नहीं है माँ, ये बस इस घटना से  जन्मा है। मै ये तो जानती थी कि कुछ रिश्ते इस दुनिया के नहीं होते, उन्हें ईश्वर ही बना कर भेजता है और वो इस मर्त्य लोक में आकर एक दूसरे को ढूंढ ही लेते हैं। परंतु मेरा और तुम्हारा रिश्ता तो मर्त्य लोक से भी परे, अध्यात्म लोक में जन्मा है। 
मुझे आज भी याद है 2016 की वो शाम जब मैं ध्यान लगाने की कोशिश कर रही थी, हाँ तब मैं ध्यान लगाने की कोशिश ही का करती थी और आँख बन्द करने के कुछ समय के बाद तुम मेरी आँखों के मन के मध्य बैठी थी। मैं नहीं जानती थी तुम कौन हो, एक तपस्विनी सी शांत। सच कहूँ तो मुझे लगा था कहीं तुम भगवान तो नहीं हो, जो रूप बदल कर मुझे ज्ञान देने आई हो। 
मैं तुम्हें निहारती रही और उस दिन मेरा सारा ध्यान भी तुम पर ही केंद्रित था। उस दिन मैं समझ सकी थी कि शायद ध्यान लग जाना इसी को कहते हैं। उसके बाद से तुम्हारा मेरे पास आना जाना लगा रहा, मैं बार बार तुमसे तुम्हारा परिचय मांगती और तुम, तुम बस मुस्कुरा दिया करती। समय बीत रहा था और तुम्हारा मेरा मिलना भी, तुम और मैं दोनों मिलकर मौन जी रहे थे। 
मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहती थी और तुम बस मुस्कान और मौन से स्वयं को अभिव्यक्त करती थी। एक दिन जब तुम आई और मैंने तुमसे कुछ नहीं पूछा तुमने स्वयं ही कहा, मत सोचो कि मैं कौन हूँ, इसका उत्तर तुम्हें समय आने पर स्वयं ही मिल जायेगा। 
मैंने कहा पर मैं आपको नहीं जानती, क्या आप मुझसे परिचित हैं.... 
वो मुस्कुरा कर बोलीं इतनी उत्कंठा क्यों, कहा न इसका उत्तर तुम्हें समय पर मिल जायेगा, तब तक भी इतना जान लो कि तुम्हें मेरा एक काम करना है। 

काम और यह सुनकर मुझे थोड़ा भय भी हुआ...... जाने क्या काम था उन्हें कहीं मेरी आत्मा निकाल के किसी और शरीर में तो नहीं डालनी है। 
बस मैं मन ही मन ईश्वर को याद करने लगी....... 

समय बीतता गया, वो यूँ ही मेरे ध्यान में यदाकदा आती रहीं कभी मुस्कुराती तो कभी भी मौन हो मुझे अनिमेष नयनों से निहारती रहती। 
 2017 से 2021 आ गया। इन दिनों मैं फेसबुक पर काफी एक्टिव थी। रोज़ अपनी कविताएँ डालना और लोगों की रचनाएँ पढ़ उनसे सीखने की प्रक्रिया में रमी हुई थी। मित्रता सूची में मित्र निरंतर बढ़ रहे थे और ऐसे में सुझाव लिस्ट में मुझे बार बार वो दिखायी दे रहे थे। यूँ तो मैं स्वयं कभी किसी को मित्रता के लिए निमंत्रण नहीं देती पर जाने क्यों मैंने उन्हें अपनी मित्रता के लिए निमंत्रण दे दिया और उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। 

उनकी वाल पर उनकी कुछ रचनाएँ देखीं और उनके कुछ वीडियो और लगा कि हम उनसे वो विधा भी सीख सकते हैं जिसके वो महारथी हैं। हमने उनसे अनुग्रह किया कि वे हमें सिखायें और उन्होंने स्वयं को असमर्थ बताते हुए मुक्ति पा ली। 
पर इस प्रक्रिया में उनसे मेरी बात निरंतर होने लगी। 
एक रोज़ उनसे मैंने उनके परिवार के बारे में पूछा तो उन्होंने सबकी फ़ोटो हमें भेज दी, मैं उन फोटोज़ को देख स्तब्ध रह गई।
उसमें एक वृद्ध स्त्री की फ़ोटो थी और ये वहीं थी जो पिछले कुछ समय से मेरे ध्यान में आ रहीं थी। 
वो उनकी माँ थी.......... 

मेरे मन में आए सभी प्रश्न अनुत्तरित थे, और मैं यह जानती थी कि मैं किसी से भी इस विषय पर बात करूँगी तो हंसी का पात्र ही बनूंगी। मैं मौन रह गयी पर अंदर प्रश्नों का जमघट बढ़ता जा रहा था। 

धीरे धीरे माँ ने मेरे और अपने मध्य की दूरियाँ कम की और एक दिन वो बोली तुझसे कहा था ना लल्ली मेरा एक काम करना है तुझे, तू अब तो पहचान गयी है न मुझको, बस तू सबका ध्यान रखना। 
मैं उनकी इस बात पर भी स्तब्ध ही थी, मैं और सबका ध्यान कैसे? मैं तो स्वयं का ध्यान रखने में  ही स्वयं को असमर्थ पाती हूँ। यूँ तो मैं मन ही मन जब भी उन्हें संबोधित करती माँ ही कहती पर मैंने उनसे पूछा, मैं आपको क्या के कर पुकारूँ ..... 

वो मुस्कुराई और बोली जो मन के अंदर कहती है, माँ ही कह। 

मैंने पूछा माँ यह दायित्व मुझे ही क्यों? 
वो मुस्कुराई और बोलीं कारण तो मैं भी नहीं बता सकती लल्ली, पर उपर वाले ने मुझे तेरे पास भेजा है तो समाधान भी तू ही कर। बस इतना के सकती हूँ कि जो तू समझ सकती है और जितना तू समझ सकती है उतना कोई नहीं समझ सकेगा।

मैंने कहा मुझे नहीं पता है माँ कि आपका और मेरा किस जन्म का रिश्ता है और ईश्वर मुझसे क्या करवाना चाहते हैं, पर मैं अपना पूरा प्रयास करूँगी कि मैं आपका कहा पूरा कर सकूँ। 
मैंने हर पल हर क्षण स्वयं को माँ की आज्ञा पालन के लिए लगा दिया। जितना ध्यान मैं उनके परिजनों का रख सकती थी मैंने उतना ध्यान रखने का प्रयास किया। माँ अब यदा कदा मेरे ध्यान में आती थी, शायद वो भी निश्चिंत थी अब। उन्हें पता था कि मैं उनकी कही हर बात का पालन कर रही हूँ। 

फिर एक दिन माँ मेरे ध्यान में आईं, कराह रहीं थी, शायद दर्द में थी। मैंने पूछा भी कि क्या हुआ तो बोली बुढ़ापा है लल्ली ये सब तो चलता रहेगा। उस दिन उन्होंने पहली बार मेरा हाथ थामा था और बोलीं तू तो संजीवनी है न, थोड़ा दर्द में आराम ही दे दे। 

संजीवनी, मेरा यह नाम तो भी दो ही लोग जानते थे मैं और मेरे पापा, फिर उन्हें कैसे पता। पर अब मुझे ऐसे प्रश्नों की आदत सी पड़ गयी थी। सो मैंने भी उनका हाथ के कर पकड़ा और उनसे कहा , "भोलेनाथ सब ठीक करेंगे। "

वो मुस्कुरा कर बोली तेरे ईष्ट हैं न वो, जानती हूँ मैं कि तेरी सब बात सुनते हैं वो। 

इस घटना को बीते कुछ 2 दिन ही हुए थे मुझे उनके पुत्र से पता चला कि उनको फ्रैक्चर हो गया है। सब चिंतित थे, मैं भी। 

फिर कुछ दिनों बाद,ध्यान की इस प्रक्रिया में मुझे मेरे मित्र अस्पताल में दिखायी दिये...
मुझे उनके अस्पताल में होने का कारण ईश्वर बता रहे थे और मैं उन्हें बार बार रोक रही थी कुछ कामों को करने से...... 
पर कहते हैं ना नियति में लिखा होकर ही रहता है.... 
जो उन्होंने मेरे कहने से नहीं किया वो उनसे नियति ने करवा लिया....... 

समय बीतता गया और एक साल में ही उन्हें हमारी मित्रता अखरने लगी और एक दिन उन्होंने हमसे कहा कि अब वो हमसे बात नहीं करना चाहते। 

और मैं तो इस मामले में बिल्कुल ही भिन्न हूँ। 
बिना किसी बहस के मैंने कहा ok..... 
और सच कहूँ तो मुझे ऐसा कोई रिश्ता कभी भाया ही नहीं जहाँ विश्वास न हो। वो अंतिम दिन था जब मैंने उनसे बात की। 

उसके बाद माँ मेरे ध्यान में निरंतर आती रहीं और मुझे या दिलाती रहीं की मैं अपना वादा पूरा नहीं कर रही हूँ और एक दिन वो बोलीं अब मैं अधिक दिन नहीं हूँ लल्ली... सारी जिम्मेदारी तुझे दे कर जा रही हूँ। 

मैंने कहा माँ, आप ऐसा क्यों कह रही हैं, आपको हम सबके साथ ही रहना है और मैं सबके लिए सदैव प्रार्थना करूँगी कि सब सुरक्षित और ठीक रहें। और आप भी तो देख रहीं हैं कि आप जिनका ध्यान रखने कि जिम्मेदारी मुझे दे रहीं हैं उनको मुझे पर विश्वास ही नहीं है। 

माँ ने कहा मुझे कुछ नहीं पता पर मेरे बाद तुझे सबका ख्याल रखना है। 

ये अंतिम बात थी जो मेरी माँ से हुई और परेशानी में मैंने उस दिन एक पोस्ट भी डाल दी 

कि कैसे रखूं ख्याल माँ.... 

बस मैं नहीं चाहती थी कि उनकी कही दूसरी बात कभी भी सच हो और कोई बच्चा कभी ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कभी उसके माता पिता नहीं रहेंगे। मैं उन्हें लौकिक जगत में कभी नहीं मिली थी पर पारलौकिक जगत में हमारा एक अजब सा ही रिश्ता था। 

उस दिन के बाद माँ लगातार मेरे ध्यान में उपस्थित रहीं मेरे साथ, पर अब वो मौन थी और अपलक मुझे देखती जा रहीं थी और फिर अचानक उनके चले जाने की ख़बर आई। 
मैं फिर स्तब्ध थी ये सोच कर कि माँ मुझे क्यों बताने आयीं थी कि वो जा रहीं हैं...... 
पर फ़िर मुझे लगा कि आख़िर मुझे नहीं बतातीं तो किससे कहती। अब मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ, उनसे बात करूँ या न करूँ। 
और इसी असमंजस में मैंने उन्हें मेसेज भी भेज दिया। 

अब माँ नहीं हैं और मुझे बहुत सी जिम्मेदारियाँ दे कर गयीं है। पर मन कहता है जहाँ विश्वास नहीं वहाँ आपके किसी भी कृत्य को किस प्रकार लिया जायेगा उस किस दृष्टि से देखा जायेगा पता नहीं। और मैं ये भी नहीं चाहती थी कि कोई माँ के जाने की इस दुःखद घटना और उस पर मेरी प्रतिक्रिया को किसी और रूप में देखे। इस कारण मैं पुनः मौन हो गयी और वापस अपने एकांतवास में अपनी प्रक्रियाओं में लग गयी। 

हाँ अंतस में एक क्रोध है स्वयं पर कि मैं माँ से किया वादा निभा नहीं सकी और माँ से इस लौकिक जगत में नहीं मिल सकी पर शायद भला ही हुआ जो मैं उनसे नहीं मिल सकी क्योंकि लौकिक जगत में रिश्तों का क्या हश्र होता है ये तो मैं देख ही चुकी थी। 

मुझे लगा शायद ये सब यहीं समाप्त हो गया पर नहीं कहानी अभी समाप्त नहीं हुई कहानी तो शायद अब प्रारंभ हुई है...... 

__________________________________________________________________________________


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी अनमोल प्रतिक्रियाएं