जिसको पंडित प्यार का माना कभी था
वो तो केवल एक साहूकार निकला
झूठ थी बातें सभी उस सत्यव्रत की
झूठ उसका प्यार और व्यहवार निकला ।
था कभी देखा जहाँ पर एक जोगी
उस हृदय में एक रोगी बस रहा था
नित्य संशय के नवल कुछ बीज लाकर
वो स्वयं अंतस में बरबस बो रहा था
जो बताता प्रेम को आधार अपना
आज झूठा उसका हर आधार निकला
जिसको पंडित प्यार का माना कभी था
वो तो केवल एक साहूकार निकला।।
ढूँढता था कथ्य के पर्याय सारे
किंतु जो भाये उसे वह मानता था
दीप जिसको मान कर हमने चुना था
वो तिमिर में ख़ुद उजाला छानता था
जिसको तट हम मानकर चलने लगे थे
वो स्वयं ही कर्म से मंझधार निकला
जिसको पंडित प्यार का माना कभी था
वो तो केवल एक साहूकार निकला।।
आस्तीनों में बसे सर्पों की ख़ातिर
उसने घर की एक मैना को रुलाया
जो उसी के हित में पढ़ते थे दुआएँ
वो वही कर, आज फिर से काट आया
जिसको अमृत मान कर हम पी रहे थे
वो गरल की तप्त अविरल धार निकला
जिसको पंडित प्यार का माना कभी था
वो तो केवल एक साहूकार निकला।।

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