मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

शनिवार, 26 नवंबर 2022

औरतें

 

एक गीतिका


रंग काला है मगर मन से कपोती औरतें

फिर भी घर वालों कि ख़ातिर हैं पनौती औरतें।। 


डोलची भर भार सर पर, जंगलों में है बसर

पात, माटी , डंडियाँ और झाड़ ढोती औरतें।


पीठ पर है बोझ घर का , शीश पर छलके घड़ा

हाथ मे लालन उठाये, खुद को खोती औरतें।


उम्र कटनी थी जो पढ़ लिख कर किसी दरबार में

अब किसी बिस्तर पड़ी बेकार होती औरतें।


बाप का दुख, और घरवाले की सारी मुश्किलें

देख कर बेचैन होती और  रोती औरतें।


जब किसी की कोख में कलियों ने करवट ली तो फिर

औरतें बनने से पहले खाक होती औरतें।


जब स्वधा बन कर जगत में आ गयी तो ये हुआ

जुगनुओं से बन गईं अंगार बोती औरतें।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी अनमोल प्रतिक्रियाएं