नहीं लिखूंगी प्रलय कभी भी,
सृष्टि रचे वह रीत लिखूंगी
कवियों वाले कुनबे की हूं
मैं सबके हित प्रीत लिखूंगी.........
मेरे गीतों में मंदिर की आरतियों वाले स्वर होंगे
मेरे मुक्तक रस छंदों के अलंकरण वाले घर होंगे
मेरे दोहे फिर कबीर की स्मृतियों में ले जाएंगे
सदा प्रसन्न रहेंगे जो भी गीत मेरे निस दिन गायेंगे
जिससे सबका भला सदा हो मैं वो मंगल गीत लिखूंगी।।
कवियों वाले कुनबे की हूं
मैं सबके हित प्रीत लिखूंगी.........
वर्तमान की दुहिता हूं मैं इसके प्रति दायित्व मेरा है
जो भविष्य में होने वाला,जाने कैसा वो चेहरा है
प्रगति लिखूंगी, प्यार लिखूंगी, राग और अनुराग लिखूंगी
सुख के दुख के, योग वियोग भरे कितने ही फाग लिखूंगी
आज सुधार अपेक्षित है जब,मैं क्यों भला अतीत लिखूंगी
कवियों वाले कुनबे की हूं
मैं सबके हित प्रीत लिखूंगी.........
सिर्फ विसंगतियां लिख कर मैं जग को कोई चोट न दूंगी
समाधान भी लिखूंगी मैं, समस्याओं की ओट न दूंगी
बैरागन की पीर लिखी यदि, मन का संगम भी लिखूंगी,
केवल ताल नहीं लिखूंगी, संग में सरगम भी लिखूंगी
द्रुत लिखा यदि तो मध्यम लय
वाला भी संगीत लिखूंगी।।
कवियों वाले कुनबे की हूं
मैं सबके हित प्रीत लिखूंगी.........
जैसे ही इक गीत लिखूंगी, मंच नया तैयार रहेगा
मेरा गीत सृष्टि का कण कण सुनने को तैयार रहेगा
इक कोशिकी जीव से लेकर बहुकोशिकी सभी सुन लेंगे
गीतों में जो सार लिखूंगी गीता सम सब ही गुन लेंगे
सत्य सार्थक और यथार्थ मैं
सदा शाश्वत जीत लिखूंगी
कवियों वाले कुनबे की हूं
मैं सबके हित प्रीत लिखूंगी.........

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