गीत
सूर्य की नव रश्मियों को कैद करना चाहता हूँ
मैं नियति की बेड़ियों को काट बढ़ना चाहता हूँ।
तेज धारा के सदृश हूँ काट दूंगा पत्थरो को
मोड़ दूंगा राह को हर, और रंगूँगा बंजरों को
ठोकरें खाई बहुत , पर मन कभी हारा न मेरा
ईश ने भी दे दिया वरदान में मुझको सवेरा
मैं प्रभाती के नए स्वर आज गढ़ना चाहता हूँ
मैं नियति की बेड़ियों को काट बढ़ना चाहता हूँ।
शक्ति है दवानलों सी, सब जलाना जानता हूँ
मैं विरोधी धार में नौका चलाना जनता हूँ
सीखता हूँ रोज़ बाहें खोल कर नव प्राण भरना
और दुखियों के हृदय में जो छिपे वो त्रास हरना
मैं छलांगे मार ऊँची पेंग चढ़ना चाहता हूँ
मैं नियति की बेड़ियों को काट बढ़ना चाहता हूँ।
तीव्रता परिचय है यदि, शालीनता की भी झलक है
नित्य नव पग मैं पसारूं ये मेरी अंतिम ललक है
कामना है हर व्यथित को शीश पर अपने बिठा लूँ
और आशा है यही आशाओं के दीपक जला लूँ
मैं पुनः कोहिनूर बन मस्तक पे मढ़ना चाहता हूँ
मैं नियति की बेड़ियों को काट बढ़ना चाहता हूँ।

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