गीत
हरे रंग का चोला डाले नाच रहा था जोगी
था वो भोला भाला मन का और था वो मनमौजी
ना जग की चिंता थी उसको , न कोई भी डर था
कर्म किये जाता था हँसके , वो ख़ुशियों से तर था
जो अंदर था वही बांटता था वो अद्भुद जोगी
हरे रंग का चोला डाले नाच रहा था जोगी।
जान रहा था पंचतत्व का मटका कुछ दिन का है
जो जीवन अनवरत चल रहा केवल पलछिन का है
एक एक पल झोली में संजोए जाग रहा था जोगी,
हरे रंग का चोला डाले नाच रहा था जोगी।
जिस दिन मैना उड़ जाएगी पिंजरा खाली होगा
उस दिन इस पिंजरे का कोई मोल नहीं फिर होगा
मैना को हरि से मिलवाले , लेने आया जोगी
हरे रंग का चोला डाले नाच रहा था जोगी।
पांवों में पड़ गयी बिवाई, मन हर पल ही टूटा
जब जीवन मे चलते चलते हर एक रिश्ता छूटा
फिर गीता का ज्ञान करा कर मुस्काया था जोगी
हरे रंग का चोला डाले नाच रहा था जोगी
स्वधा रवींद्र "उत्कर्षिता"

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