मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

गीत :- मौन बन चलने दो





गीत

अभिव्यक्त सदा मैं रहूँ ज़रूरी नहीं, 
मौन बन चलने दो
दुनिया को दिखूं,दिखूं न दिखूं, 
तुम हृदयस्थल में पलने दो।

मैं परछाईं बन कर हर पल, 
तुझ संग सानिध्य निभाऊँगा
मैं हाथ तेरा हाथों में ले , 
नित आगे बढ़ता जाऊंगा
पाषाण तेरी राहों के मैं 
आगे बढ़ सदा हटाऊंगा
चाहे कैसे हालात रहें 
बस तेरा ही कहलाऊंगा

बस इतनी अभिलाषा मेरी ,
मुझे  नव ढांचे में ढलने दो
अभिव्यक्त सदा मैं रहूँ ज़रूरी नहीं, 
मौन बन चलने दो।

नीलाभ गगन में उड़ते हैं 
मेरी आशाओं के बादल
सागर के अंतस में बसते 
भावों के अनुपम पुष्पित दल
मैं तेरे प्रश्नों के उत्तर में
उत्तर बन आ जाऊँगा
रख मौन सदा सम्पुट पट पर
नयनों से सब कह जाऊँगा

बस एक यही एक आस मेरी
मेरे अंसुओं को गलने दो
अभिव्यक्त सदा मैं रहूँ ज़रूरी नहीं, 
मौन बन चलने दो।

जाने कितने स्वप्नों में से 
तेरी अँखियों का स्वप्न बना
बस तेरा साथ निभाने को 
मैं शक्ति साध अवलंब बना
मैं तुझको थामे थल जल सब 
एक बार पार कर जाऊँगा
तेरे आँखों से नीर चुरा
मैं पलकों बीच बसाऊंगा

तुझसे बस एक उम्मीद यही
मुझे प्रेम अग्नि में जलने दो
अभिव्यक्त सदा मैं रहूँ ज़रूरी नहीं, 
मौन बन चलने दो।




स्वधा रवींद्र "उत्कर्षिता"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी अनमोल प्रतिक्रियाएं