।1।
सुषुम्ना के अनाहत के अनाहद नाद जैसे हो,
हृदय में बज रहे दिन रात बिना आघात जैसे हो
तुम्ही में लीन हो कर जड़ से चेतन हो रही हूँ मैं
मुझे जो शिव पे है शाश्वत उसी विश्वास जैसे हो।
।2।
जो बजता साम के स्वर सा वो अनहद नाद तुम सा है
जो है अग्रज कलाओं का वो अंतर्नाद तुम सा है
जिसे साधक समझता है कोई भी पढ़ नहीं सकता
जो दे अनुभूति प्रभु के साथ की वो साथ तुमसा है।

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