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मैं हूँ प्यासी धरा तुम गगन की घटा
सिंधु से जो मिला वो ही बरसाओगे
मैने अपलक निहारा तुम्हारी तरफ
बोलो कैसे मुझे तुम भुला पाओगे।
भोर से सांझ तक मैं तुम्हारे लिए
बढ़ रही ऑसि का हाथ थामे हुए
गुनगुनाती रही स्वांस की डोर पर
मैं तुम्हें अपना सर्वस्व माने हुए
इन हवाओं में खुशबू तुम्हारी घुली
दूर रहकर भला कैसे तरसाओगे।
मैं हूँ प्यासी धरा तुम गगन की घटा
सिंधु से जो मिला वो ही बरसाओगे
मैने अपलक निहारा तुम्हारी तरफ
बोलो कैसे मुझे तुम भुला पाओगे।
प्रेम पिंजरे की मैना हुई बांवली
सींकचों में ही सर वो पटकने लगी
प्यास नैनों में दर्शन की पाले हुए
वर्जना की गली में भटकने लगी
धड़कनों से तुम्हारी ही आहट मिले
छोड़ कर तुम मुझे फिर कहाँ जाओगे
मैं हूँ प्यासी धरा तुम गगन की घटा
सिंधु से जो मिला वो ही बरसाओगे
मैने अपलक निहारा तुम्हारी तरफ
बोलो कैसे मुझे तुम भुला पाओगे।
रंग कितने ज़माने में बिखरे सही
रतग तुमसा कोई एक मिलता नहीं
देख डाले सभी बाग मैने मगर
एक भी पुष्प तुमसा न खिलता कहीं
प्रश्न बस एक ही मन को छलता रहा
कब मेरे मन में आकर बिखर जाओगे
मैं हूँ प्यासी धरा तुम गगन की घटा
सिंधु से जो मिला वो ही बरसाओगे
मैने अपलक निहारा तुम्हारी तरफ
बोलो कैसे मुझे तुम भुला पाओगे।
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