मैं उसके
आने से पहले
इतने ख्वाब
सजा लेती हूँ
कि उसके
बिना मिले
जाने के बाद
उन टूटे ख्वाबों को
बटोरने में
मैं स्वयं को
ही खो देती हूँ।
और फिर बटोरती हूँ
अपने ही टुकड़े
और उन्हें जोड़
फिर खड़ी होती हूँ
ये सोच
कि कल अगर उसे
मेरी ज़रूरत पड़ी
तो मैं उसे टूटा हुआ
अस्तित्व कैसे
समर्पित करूंगी।
देव को खंडित
कुछ भी
अर्पित कहाँ होता है।
पर यह भूल जाती हूँ
कि
देव को किसी की
आवश्यकता भी
कहाँ पड़ती है।

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