लोग
रोज़ रोज
मुझसे पूछते हैं
की मैं क्यों नहीं लगाती
आंखों में काजल
माथे पे बिंदी
मैं क्यों नही पहनती
हांथों में चूड़ी
कंगन और
क्यों नहीं लगाती मेहंदी।
लोग रोज़ रोज़ मुझसे पूछते है
कि मैं क्यों नहीं गूंधती वेणी
क्यों नहीं डालती गजरा
क्यों नहीं पहनती
मंगल सूत्र,
बिछिया और पायल।
क्या मुझे अपने शिव से प्रेम नहीं?
और उत्तर ना मिलने पर कहते हैं वे
परिणीता हूँ मैं
और मैं हँस देती हूँ
क्या बताऊँ उन्हें
और क्या समझाऊं उन्हें
आंखों में काजल नहीं
उनके सपने सजा रखें हैं मैंने
माथे पे बिंदी नहीं
उनका ध्यान लगा रखा है मैंने
हांथों ने कभी चूड़ी और कंगन
की ज़रूरत ही महसूस ही नहीं की
मेरे हांथों में वो खनकता है
रोज़ लिखती तो हूँ
उनका नाम हांथों पर
जाने कितनी ही बार अपनी उंगलियों से
एक बार उन्होंने खोली थी मेरी वेणी
और कहा था मुझे
नीलांजना
बहुत सुंदर लगती हो तुम खुले गेसुओं में
और ये गजरा क्यों लगाती हो
तुम्हारे सौंदर्य की खुशबू
इससे ज़्यादा भीनी है
और ये कहते वो मुस्कुरा के डाल देते थे
अपनी बाहों का हार
मेरे गले में डाल
और मेरे पैरों को
चूम कर कहते
"इन्हें किसी सृंगार की ज़रूरत नहीं
इन्हें ज़मीन पर मत रखना
मैले हो जाएंगे।"
तुम्हे किसी सृंगार की ज़रूरत नहीं
और मैं भी त्याग देती हूँ
काजल बिंदी चूड़ी कंगन बिछिया
गजरा और मंगलसूत्र
जिनमें सजने के सपने लेकर
आयी थी मैं
याद है मुझे
माँ बाबा का वो कहना
उफ्फ
इसकी सुबह तो
इसके इस पिटारे से
होती है
न जाने ये सज सवंर कर
किस राजकुमार के
सपने बोती है।
वो चटकीला लाल सिंदूर
वो बड़ी लाल बिंदी
वो लंबा वाला मंगलसूत्र
वो बिछुआ
और
वो घुंघरुओं वाली
छम छम करती पायल
कभी सोचा था
पी के आंगन में
रोज़ बजाऊँगी
चूड़ी, कंगन, पायल
पर
मेरा ये एक मात्र शौक
उन्हें नहीं भाया था
इसीलिए तो
अपनी गुड़िया की शादी में भी
दुल्हन की तरह सजने वाली मैं
सारे सृंगार छोड़ चुकी हूँ
और अपनी
माँ बहन भाभियों के
चटकीले सृंगारों पर
उन्हें निहार प्यार से कहते
अम्मा आज तो बड़ी जंच रही हो
का हो विम्मी
किसके लिए
लगाई हो ये बड़ी लाल बिंदी
कुंवर सा आ रहे है क्या
अरे भाभी लाल साड़ी
तो तुमपर
खूब सज रही है
अम्मा देखो तो आज
भाभी क्या लग रही है
उनके कहे इन शब्दों में
ढूंढ लेती हूँ अपना सृंगार
हाँ शायद
मैं प्रेम नहीं करती
अपने शिव से।
स्वधा रवींद्र "उत्कर्षिता"

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