हाँ अच्छा है
की तुम तक
अब मेरी आवाज़ ना पहुंचे।
ये अब वैसी नहीं है
जैसी तुमने थी सुनी पहले
की जिसमें खनखनाहट थी
सदा मुस्काती थी पहले
तुम्हें तो याद होगा ना
पहन पायल ये आती थी
ये आंगन में चहकती थी
छतों पर नाच आती थी
बहुत शैतान थी पहले
तुम्हें छिप कर सताती थी
कभी जब रूठते थे तुम
तुम्हे रोकर मनाती थी
मगर वो बीते लम्हे हैं
मैं तुमसे कह रही हूँ ना
हाँ अच्छा है
की तुम तक
अब मेरी आवाज़ ना पहुंचे।
की बजती तान थी जिसमे
कभी मल्हार दीपक सी
है उसमें आज बजती वेदनाएं
राग भैरव सी
ये पहले श्याम की मुरली
की तरह गुनगुनाती थी
जो तितली देख ले कोई
तो पीछे दौड़ जाती थी
मगर अब मौन हो कर ये
कहीं आंसू बहाती है
मैं तुमसे कह रही हूँ ना
हाँ अच्छा है
की तुम तक
अब मेरी आवाज़ ना पहुंचे।
बहुत मुश्किल घड़ी होगी
ये जब सम्मुख खड़ी होगी
तुम्हारे जिस्म में सारे
अजब सी सरसरी होगी
नहीं बर्दाश्त होगा तुमको इसका
ऐसा हो जाना
बहुत होगा कठिन प्रिय फिर
तुम्हारा मुस्कुरा पाना
ये अब है दर्द की गंगा
विहंगम हो गयी है ये
किसी नमकीन सागर से
लिपट कर सो गई है ये
कि इससे चाशनी अब दोस्त
प्यालों में नहीं गिरती
मैं तुमसे कह रही हूँ ना
हाँ अच्छा है
की तुम तक
अब मेरी आवाज़ ना पहुंचे।
स्वधा रवींद्र "उत्कर्षिता"

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