मुझे नहीं सुनना कुछ भी
ईश्वर के भजन
प्रेयसी के गीत
जुदाई की ग़ज़ल
दूरियों के दौरान लिखी नज़्म
सावन में गाये राग
रुबाई
और
सूफी सन्तों की लिखाई
तुम्हारे न गाने की शर्त पर।
मुझे नहीं देखना कुछ भी
हरी भरी धरती
घना नीला तारों से भरा आकाश
फलों से लदे पेड़
गगनचुम्बी पहाड़
कलकल बहती नदी
उत्ऋंखल झरने
और
मौन तालाब
तुम्हें न देखने की शर्त पर।
मुझे नहीं महसूस करनी
मनुष्य और जानवरों की गंध
फूलों और कलियों की सुगंध
और
स्पर्शेन्द्रिय पर
किसी और का स्पर्श
तुम्हारे न छूने की शर्त पर।
मुझे नहीं चाहिए
कुछ भी
लाल चूड़ियों से भरी कलाई
वो जुगनू जैसी टिमटिमाती बिंदी,
आँगन में छनछन करने वाली पायल,
मीनाकारी की हुई बिछिया
गोटा लगी अंगिया
और वो पीला वाला लहंगा
तुम्हारे न होने की शर्त पर।
समझते हो तुम ऊपर लिखे
हर शब्द का अर्थ
नहीं शायद नहीं
और अच्छा ही है
ना समझो तो
जब तक न समझो
तब तक मैं तुमसे लड़ सकूंगी,
तुम्हारी परवाह कर सकूंगी
और
बहुत सारे झूठ बोल
प्यार को कोई और जामा पहना
तुम्हारे सामने रख सकूँगी
अपनी मांगों का पिटारा
जिसमें सांसारिक चीजों के अलावा
कुछ नहीं होगा
कुछ नहीं।
स्वधा रवींद्र "उत्कर्षिता"

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