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व्यक्तिगत अनुभव से अपने कह रही हूँ,
वो स्वयं को आप ही छलने लगा है..
है सदा से भिन्न कुछ विज्ञान उनका
प्रेम की राहों पे जो चलने लगा है!!
हर क्रिया के बाद उतनी ही मिलेगी,
प्रतिक्रिया विज्ञान ने यह कह दिया था,
जिस दिशा में बल लगाओगे चलेंगी
वस्तुएं यह ज्ञान न्यूटन ने दिया था...
फिर भला क्यों प्रेम के बदले कभी भी,
प्रेम ही परिणाम में ना हाथ आया
जिस दिशा में मन चला नित ही हमारा
उस दिशा में प्रिय क्यों कर चल ना पाया
प्रेम का आभास जिसको हो गया है
वो हिमाँको पर पहुँच गलने लगा है
व्यक्तिगत अनुभव से अपने कह रही हूँ,
वो स्वयं को आप ही छलने लगा है!!
कर्म तो रेखीय गति में कर रहा था
भाग्य की गति किंतु कुछ वक्रीय सी थी
थे लगाए सूत्र सब गति के नियम के
चाल भावों की मगर चक्रीय सी थी
तुम पलायन वेग से आगे बढ़े थे
किंतु जाना ना घटित होना लिखा था
प्रेम का बल तेज था इतना हमारे
वो गुरुत्वाकर्ष से कईयों गुना था
जानते हो वो परे सिद्धांत से हर
जो प्रिये का अनुकरण करने लगा है
व्यक्तिगत अनुभव से अपने कह रही हूँ,
वो स्वयं को आप ही छलने लगा है!!
कह रहा विज्ञान जितना डूबता है
ठीक उतना द्रव्य विस्थापित हुआ है
किंतु जो बैठा विरह का दाब लेकर
प्रेम में वो नित्य उत्थापित हुआ है
है बताता दीप्ति की गति तेज सबसे
किंतु मन उससे भी आगे भागता है
'घात वह' ना रोक पाता तड़ित चालक
जो विरह की वेदना से जागता है
सत्य यह है प्रेम के संपर्क में आ
हर नियम विज्ञान का टलने लगा है
व्यक्तिगत अनुभव से अपने कह रही हूँ,
वो स्वयं को आप ही छलने लगा है!!
कह रहे हैं आज कल के सब पुरोधा
सिर्फ धन और ऋण ही आकर्षित हुए हैं
किंतु जिनके मन समर्पण से जुड़े हों
ये नियम उनको भला क्या छू सके हैं
दूरियाँ बढ़ जाएँ या आवेश कम हो
नेह के बल तो सदा खींचा करेंगे
प्रेम शीतल है मगर आधिक्य हो तो
प्रेम में प्रिय आँख हम भींचा करेंगे
नेह के बंधन में जो भी बंध गया है
वो बिना घर्षण के ही जलने लगा है
व्यक्तिगत अनुभव से अपने कह रही हूँ,
वो स्वयं को आप ही छलने लगा है!!
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