हिमशिला पर आज लेटी सोचती हूँ प्राण प्यारे...
तुम नहीं मिलते मुझे तो मैं स्वयं को हार जाती
किस तरह बोलो तथागत मैं धरा के पार जाती!!!!
पूर्व जन्मों से लिखा कर लाई थी व्यहवार सारे
किसका बनना है सहारा और हूँ किसके सहारे
तुम मिले तो कह सकी सब अन्यथा बस मौन रहती
शांत सी सरिता बनी मैं सिर्फ बहती सिर्फ बहती
तुम नहीं मिलते अगर तो किस तरह उद्धार पाती
तुम नहीं मिलते मुझे तो मैं स्वयं को हार जाती
किस तरह बोलो तथागत मैं धरा के पार जाती!!!!
साथ मेरे तुम चले तब, जब नियति भी साथ ना थी
भाग्य वाली कोई रेखा जब हमारे हाथ ना थी
देखते थे जब सकल नक्षत्र टेढ़ी दृष्टि करके
राहु केतु और शनिश्चर भी चले थे वृष्टि करके
तुम ना आते तो कृपा गुरु की ना मेरे द्वार आती
तुम नहीं मिलते मुझे तो मैं स्वयं को हार जाती
किस तरह बोलो तथागत मैं धरा के पार जाती!!!!
काठ की सीढ़ी जिसे मैं देख कर डरती रही थी
श्वेत चादर ओढ़ने से मैं सदा बचती रही थी
आज वे दोनों मुझे शृंगार जैसे लग रहे हैं
पी मिलन के स्वप्न, देखो आज उर में सज रहे हैं
तुम ना आते तो मेरी ख़ातिर न ये अगियार आती
तुम नहीं मिलते मुझे तो मैं स्वयं को हार जाती
किस तरह बोलो तथागत मैं धरा के पार जाती!!!!

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