सुनो
अब पुकारूँ
भी तुम्हें तो
तुम मुझे मत देना उत्तर
मेरे प्रश्नों का
शायद तुम्हारे ऐसा करने से
मैं तुमसे भिन्न
अपना अस्तित्व तलाश सकूँ
शायद ढूंढ सकूँ
अपने लिए
कोई नया आकाश
शायद उड़ सकूँ
पंख पसार
विस्तृत वितान में।
सुनो
अब पुकारूँ
भी तुम्हें तो
तुम मुझे मत देना उत्तर
मेरे प्रश्नों का
शायद तुम्हारे ऐसा करने से
मैं जीना सीख सकूँ
तुम्हारे बिन
अभी तो जी रही हूँ
हर पल हर क्षण तुम्हारे साथ
सुबह की
पहली किरण के साथ,
इंद्रियों के जागते ही
तुम जाग जाते हो
मेरे ही अंदर
और जागते ही
गुनगुनाने लगते हो तुम
"अभी मुझमे कहीं
बाकी थोड़ी सी है ज़िन्दगी"
और पनपते रहते हो मेरे अंदर
जीवन बन कर
सुबह से रात तक।
सुनो
अब पुकारूँ
भी तुम्हें तो
तुम मुझे मत देना उत्तर
मेरे प्रश्नों का
शायद तुम्हारे ऐसा करने से
मैं समझ सकूँ
कि मैंने अपने अंदर जो
इस बात का
मायाजाल बना रखा है
की तुम मेरे हो
वो टूट सके
वो विश्वास की दीवार
जो इस सोच के साथ
मैं रोज़ पुख्ता कर रही थी
की तुम समझते हो मुझे,
मेरे प्रेम को
और एक न एक दिन
अवश्य सब छोड़
भाग कर आ लगोगे मेरे गले से
कभी वापस
ना जाने के लिए।
सुनो
अब पुकारूँ
भी तुम्हें तो
तुम मुझे मत देना उत्तर
मेरे प्रश्नों का
शायद तुम्हारे ऐसा करने से
कुछ हो सके मेरे इस
अबाधित,
अप्रतिबंधित
बिना किसी शर्त
किये गए प्रेम का
जो तुम्हारी हर हाँ पर
करोड़ो गुना बढ़ जाता है
कभी ना खत्म होने के लिए
भले तुम्हारी वह हाँ
मेरे सवालों को सरलता से
टाल देने का एक जरिया हों।
इसलिए कह रही हूँ बार बार
अब पुकारूँ
भी तुम्हें तो
तुम मुझे मत देना उत्तर
मेरे प्रश्नों का
कम से कम तब तक तो
बिल्कुल नहीं
जब तक
तुम्हें
ये एहसास ना हो जाये
कि ये मात्र प्रश्न नहीं है
किसी का प्रयत्न है
हर पल तुम्हारे साथ रहने का
जब तक
मुझसे पूछने के लिए
तुम्हारे पास भी प्रश्नों का
जमघट एकत्र ना हो जाये
जब तक
तुम्हे भी मेरे प्रश्नों की प्रतीक्षा
करना अच्छा ना लगने लगे
जब तक तुममे स्वयं
साथ होने की चाह ना जन्मे
और
जब तक तुम स्वयं न समझ सको
इस प्रेम को गहराई को
और स्वयं ना डूब जाना चाहो
इस प्रेम वैतरणी में
अमर हो जाने के लिए।
आज कह रही हूँ तुमसे
मुझे प्रेम चाहिए
कर्तव्य और दया नहीं,
इसीलिए
सुनो
अब पुकारूँ
भी तुम्हें तो
तुम मुझे मत देना उत्तर
मेरे प्रश्नों का।
स्वधा रवींद्र "उत्कर्षिता"

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