सुनो तथागत!
कभी देखा है तुमने मौन को
शोर करते हुए
कभी देखी है कोई विद्युत धारा
उल्टी दिशा में बहती
कभी देखा है
चलता हुआ चेतना विहीन शरीर
कभी देखा है
बिना कोई इच्छा कोई आस धारे
किसी मन को अधीर......
नहीं देखा होगा,
कह सकती हूँ मैं यह....
जानते हो क्यों?
क्योंकि
इन्हें देखने के लिए चाहिए
विशेष दृष्टि
जो कर सकती हो प्रलय के पलों में
प्रेम की सृष्टि
और वह दृष्टि पाने के लिए
बनना पड़ता है नीलकंठ
पीना पड़ता है विष
पर कठिन है नीलकंठ बन पाना
यह भी समझती हूँ
बताती हूँ तुम्हें एक और उपाय
यदि देखने हों तुम्हें
आशाओं की टूटती दीवारों पर
टिकी जीवन रूपीछत,
जो दे रही है छाया
ख़ुद हो कर छत विक्षत
बन न सको नीलकंठ तो
बन जाना सुकरात
बन जाना मीरा
उठा लेना विष
कभी प्रेम और कभी समाज के लिए
निश्चित ही तब समझ पाओगे तुम
शांत समंदर के अंदर छिपे तूफ़ान को।

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