मम अंतर्नाद

मम अंतर्नाद
मेरा एकल ग़ज़ल संग्रह

शनिवार, 2 जुलाई 2022

महबूबा मुझे माँ जैसी लगती है।।



उसे मेरी भलाई के सिवा कुछ भी नहीं दिखता

यही वजह है महबूबा मुझे माँ जैसी लगती है।। 


खिला देती है मुझको कौर वो ख़ुद अपने हिस्से का,

मेरी ख़ातिर बचाये सारे पैसे खर्च करती है,

भले कितनी हो रुसवाई, भले कोई कहे कुछ भी

ज़माने भर से वो मेरे लिए हर रोज़ लड़ती है

मेरी ख़ातिर लुटा देती है अपनी हर खुशी पागल

मेरी खातिर जो बिकना भी पड़े तो रोज़ बिकती है


उसे मेरी भलाई के सिवा कुछ भी नहीं दिखता

यही वजह है महबूबा मुझे माँ जैसी लगती है।। 


मेरी आँखों में आँसू गर कभी भूले से आ जाएँ

वो रो रो कर ख़ुदा से प्रार्थनायें खूब करती है

मेरे जीवन की खुशखाली की खातिर बाँवरी मेरी

कभी व्रत कर रही होती, कभी वो रोज़े रखती है

उसे कब फर्क पड़ता है मेरे ना साथ होने से

वो बंजारन तो सब कुछ छोड़ मेरे साथ चलती है


उसे मेरी भलाई के सिवा कुछ भी नहीं दिखता

यही वजह है महबूबा मुझे माँ जैसी लगती है।। 


मेरे सुख में सुखी होती मेरे गम में वो पगलाती, 

मैं उससे दूर हो जाऊँ, तड़पती और घबराती

वसीयत में, वो अपना सब, मेरे ही नाम कर जाती

वो मुझसे पूछ कर जीती, मेरी ख़ातिर वो मर जाती

नहीं होती मगर नस नस में मेरे खूब बहती है

मुझे हर वक़्त मेरी ही फ़िकर करने को कहती है


उसे मेरी भलाई के सिवा कुछ भी नहीं दिखता

यही वजह है महबूबा मुझे माँ जैसी लगती है।। 


कहीं भी हो, कभी भी हो, वो मेरे साथ होती है

वो मेरे साथ हंसती है वो मेरे साथ रोती है

वो मेरे घर,मेरे रिश्ते सभी को बाँध रखती है

मैं सो जाता हूँ तब भी वो सिरहाने बैठ जगती है

अजब सी है, मेरा व्यहवार उसको नित रुलाता है

मगर जो दर्द भी मैं दूँ, उसे मुस्का के रखती है


उसे मेरी भलाई के सिवा कुछ भी नहीं दिखता

यही वजह है महबूबा मुझे माँ जैसी लगती है।। 


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