चार पत्तों से छिपाये
घूमता है सर
आज फ़िर हलधर।।
था किताबी ज्ञान से अनिभिज्ञ लेकिन
जिंदगी को पास से उसने पढ़ा था
शब्द के मोती पिरो कर हर दफा ही
भावना से काव्य ज़ेवर को गढ़ा था
वो हलाहल बीच से भी ले ही आता
फिर घटभ अपना अमिय से भर
आँधियों में,बारिशों में
हो रहा है तर
आज फिर हलधर।।
तन भले कृषकाय था लेकिन हृदय में
स्नेह की स्निग्ध गंगा बह रही थी
दूसरों के कष्ट भय दुख और विपदा
बिन कहे वो आत्मा ख़ुद सह रही थी
आग तो सारे विपिन मे ही लगी थी
पर जला वो जो गया भीतर
आंगनों की खोज करता
जबकि हिस्से में नहीं है घर
आज फिर हलधर।।
उम्र के अंतिम पड़ावों में मिला है
वेदनाओं को सदा सम्मान सच है
झूठ सिंहासन पे बैठा हँस रहा है
सत्य लेकिन आज तक सबको अपच है
मान पाकर काव्य को फ़िर से मिला है
दीर्घ आयु वो रहे यह वर
होंठ पर मुस्कान धारे
दिख रहा जर्जर
आज फिर हलधर।।
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